प्रस्तावना :-

पालि साहित्य में साहित्य के अनेक प्रकार पाये जाते है। पालि साहित्य में  इतिहास साहित्य प्रकार वंस साहित्य के नाम से  प्रचलित  है। वंस साहित्य की निर्मिति श्रीलंका, म्यानमार और थायलंड इ. बौद्ध राष्ट्रों में हुयी है।   दीपवंस वंस साहित्य का सर्वप्रथम प्रयास  है। दीपवंस इस ग्रंथ द्वारा प्राचीन भारत और प्राचीन श्रीलंका के इतिहास के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । दीपवंस ग्रन्थ द्वारा श्रीलंका के बौद्ध कला के विषय में भी महत्वपूर्ण जानकारी  प्राप्त होती  है, साथ ही प्राचीन भारत के बौद्ध कला के विषय में भी महत्वपूर्ण जानकारी  प्राप्त होती  है । दीपवंस में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित 84000 विहारों के बारे में जानकारी दी गयी है।

प्राचीन भारत में विहार निर्मिती:-

दीपवंस यह श्रीलंका का इतिहास ग्रंथ है। अतः इस ग्रंथ में श्रीलंका के इतिहास विषय में प्रचुर सामुग्री उपलब्ध है। प्राचीन भारत में  राजा बिंबिसार से  सम्राट अशोक के कालावधी तक का इतिहास दीपवंस ग्रंथ द्वारा  प्राप्त होता है । सम्राट अशोक के पूर्व किसी भारतीय राजा द्वारा विहार निर्मिति की जानकारी  दीपवंस ग्रन्थ द्वारा प्राप्त नहीं होती है । सम्राट अशोक के काल में भारत में बौद्ध कला का बहुत विकास हुआ था । सम्राट अशोक  ने अपने शासनकाल में 84,000 विहारों का निर्माण कार्य किया था । इसविषय में दीपवंस में जानकारी प्राप्त होती है ।

84,000 विहारों की निर्मिती का उद्देश :-

सम्राट अशोक  द्वारा 84,000 विहारों की निर्मिती का उद्देश भी दीपवंस ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है । सम्राट अशोक ने न्युग्रोध  समण द्वारा धम्मोपदेश से प्रभावीत होकर बौद्ध धम्म का स्वीकार किया। सम्राट अशोक ने न्युग्रोध  समण द्वारा बुद्धोपदेश सभी प्राणियों के कल्याण के लिये है ,सभी प्राणियों के सम्पूर्ण दुक्खरुपी रोगों को नाश करने के लिए अमृततुल्य औषध है इस महत्वपूर्ण  उपदेश को ग्रहण किया और साथ ही सम्पूर्ण बुद्धोपदेश 84000 धम्मस्कन्ध में विभाजित है यह सुनकर सम्राट अशोक ने निर्धार किया-

चतुरासीतिसहस्सानि परिपुण्णं अनूनकं।

देसितं बुद्धसेट्ठस्स धम्मक्खन्धं महारहं।।1

अर्थात: भगवान बुद्ध ने चौरासी हजार धम्मस्कन्ध कहे है इन स्कन्धों की स्मृति – रक्षा के लिये एक-एक धम्मस्कन्ध के नाम पर एक-एक विहार बनाते हुये सम्राट अशोक  ने 84,000 विहारों की निर्मिती की।

चीनी यात्रियों का मत :-

कुछ विद्वान इस विधान पर संदेह व्यक्त करते है की सम्राट अशोक  ने 84,000 विहारों की निर्मिती की है, परंतु चीनी यात्री फाहियान व इत्सिंग जब भारत यात्रा के लिए आये थे, तब उन्हे काफी स्थानो में बौद्ध स्तूप एवं विहार दिखायी दिये जो सम्राट अशोक  द्वारा निर्मित किये गये थे।2 इससे इस बात की पुष्टि होती है की सम्राट अशोक ने अत्याधिक संख्या में विहारों की निर्मिति की थी।

84000 विहारों  का निर्मितिमूल्य :-

सम्राट अशोक ने 84000 विहारों के निर्माण कार्य के लिए अत्याधिक मुद्राएँ व्यय किये। इस विषय में भी दीपवंसकार जानकारी प्रदान करता है । सम्राट अशोक कहते है –

छन्नऊति कोटियो च विस्सज्जेत्वा महाधनं।

चतुरासीति सहस्सानि आरामा कारिता मया।3

(मैने छयानवै करोड़ मुद्राएँ खर्च कर इन चौरासी हजार विहारों का निर्माण कराया है।)

साथ ही 84000 विहारों के लिए निर्माण राशि का व्यय किस प्रकार किया जाना चाहिये इस के लिये सम्राट अशोक ने उचित व्यवस्था भी की थी।

छन्नवुतिकोटिधनं  विस्सज्जेत्वान खत्तियो।

तमेव  दिवसं राजा  आणापेसि च तावदे।।4

( राजा ने इस कार्य के लिए छियानवें कोटि मुद्राओं का एक अलग कोष स्थापित किया एवं इस निर्माण कार्य के लिए उसी दिन राजाज्ञा भी प्रसारित कर दी )

 84 शहरों में विहार निर्मिति :-

सम्राट अशोक  ने छयानबै करोड़ मुद्राएँ व्यय करके तीन वर्षो में 84,000 विहारों का निर्माण कार्य पूर्ण किया। दीपवंस ग्रंथ में कौन से शहरों में विहारों का निर्माण किया गया इसविषय में जानकारी प्राप्त नहीं होती है, केवल यही जानकारी प्राप्त होती है की प्रसिद्ध 84 शहरों मे विहारों का निर्माण कार्य किया गया-

 तस्मिं काले जम्बुदीपे नगरं चतुरासीतियो।

एकेकनगरट्ठाने पच्चेकारामं कारयि।।5

(उस समग्र जम्बुद्धीप में चौरासी (84) प्रसिद्ध नगर थे। अतः उनमें से प्रत्येक नगर में एक-एक विहार बनवाया)

84000 विहारों  का निर्माण कालावधि   :-

दीपवंसकार 84000 विहारों के निर्मिति के कालावधि के विषय में जानकारी प्रदान करता है –

अन्तो तीणि च वस्सानि  विहारं  कत्वान खत्तियो।6

अर्थात तीन वर्ष में 84000 विहारों का निर्माण कार्य हुआ था। दीपवंस ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा  84000 विहारों के निर्माण के विषय अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी  प्राप्त होती है।

 पूजा सप्ताह का आयोजन :-

सम्राट अशोक ने 84000 विहारों की निर्मीती करने के पश्च्यात सम्राट अशोक ने पूजा सप्ताह का आयोजन किया। इस सन्दर्भ में दीपवंस  में  निम्न जानकारी दी गयी है –

परिनिट्ठिते         आरामे     पूजं सत्ताह कारयि ।।7

(विहारों के निर्माण होने के पश्च्यात, इनके सम्मान में पूजा सप्ताह मनाया गया)

नवनिर्मित विहार अत्याधिक सुशोभित किये गए थे-

धजं उस्सापितं पुप्फं तोरणं च मालग्घियं।

कदली पुण्णघटं चेव नानापुप्फसमोहितं ।।8

(चारों तरफ फहरायी गयी ध्वजाओं, पुष्पों, तोरणों, बंधी हुयी मालाओं, केले के खम्भों, जलपूर्ण घट और विविध प्रकार के फूलों से आवृत थे।

इस प्रसंग में सम्पूर्ण भारत से बहुत अधिक संख्या में भिक्खु संघ एवं भिक्खुनी संघ सम्मेलित हुआ था। उन्हें अत्याधिक दान भी इस समागम में दिया गया।

समागते भिक्खुसङ्घे भिक्खुनी च समागते।

महादानं च पञ्ञतं दीयमाने वनिब्बके  ।। 9

(भिक्खुसंघ  और भिक्खुण संघ के सम्मेलित होने पर महादान का आयोजन किया गया,  भिक्खुसंघ  और भिक्खुणिसंघ  को दान सामग्री दी गयी)

84000 विहारों के स्थापत्य कला के विषय जानकारी अनुपलब्ध :-

लेकीन इन 84000 विहारो के स्थापत्य कला के विषय मे कोई भी जानकारी दीपवंस ग्रंथ द्वारा प्राप्त  नही होती है । दीपवंस ग्रंथ में 84000 विहारों के स्थापत्य कला के विषय जानकारी अनुपलब्ध है ।

निष्कर्ष:-

दीपवंस ग्रंथ प्राचीन  श्रीलंका के विहारो के इतिहास के अध्ययन के दृष्टी से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है, साथ ही प्राचीन  भारत के विहारो के इतिहास के अध्ययन के दृष्टी से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । सम्राट अशोक ने 84,000 विहारों की निर्मीती की, इसका साहित्यीक प्रमाण दीपवंस ग्रंथ प्रदान करता है । 84,000 विहारों की निर्मिती का उद्देश, विहारों का निर्माण कालावधि,  विहारों  का निर्माणमूल्य, साथ ही  84 प्रसिद्ध शहरों में 84,000 विहारों की निर्मिती की गयी इन  महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी  दीपवंस ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा प्राप्त होती  है ।

 

सन्दर्भ ग्रंथ सूची :

  1. सिंह, डॉ.परमानन्द, दीपवंस, बौद्ध आकर ग्रंथमाला, वाराणसी, प्र. सं. 1996, गाथा क्र. 94, पृ.क्र.108.
  2. विमलकीर्ति, डॉ., भगवान बुद्ध प्रेरणादायी जीवन, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली 2008, पृ.क्र.72-73.
  3. सिंह, डॉ. परमानन्द, दीपवंस, गाथा क्रं. 10 ,पृ.क्र.112.
  4. तत्रेव, गाथा क्र 96, पृ.क्र.110
  5. तत्रेव, गाथा क्र 97, पृ.क्र.110.
  6. तत्रेव, गाथा क्र. 98, पृ.क्र.112.
  7. तत्रेव.
  8. तत्रेव, गाथा क्र. 5, पृ.क्र.112.
  9. तत्रेव, गाथा क्र. 7, पृ.क्र.112.

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