प्रस्तावना :-

इसा पुर्व तिसरी शताब्दी में  थेर महिन्द द्वारा श्रीलंका में बौद्धधम्म का प्रवेश  हुआ। थेर महिन्द एवं थेरी संघमित्रा के प्रयासों द्वारा शीघ्र ही श्रीलंका बौद्धमय हो गया। श्रीलंका में बौद्ध स्थापत्य कला का उगम एवं विकास भी इसी काल मे हुआ। श्रीलंका के राजाओं ने  बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राजा दुट्ठगामणी ने भी बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कही महत्वपूर्ण विहारों की एवं बौद्ध वास्तु की निर्मिती की जिसमे लोहपासाद का भी समावेश होता है । वर्तमान समय में भी लोहपासाद का अस्तित्व दिखायी देता है।

लोहपासाद की निर्मिती का उद्देश :-

राजा दुट्ठगामणी का  शासनकाल इसा पूर्व 101 -77 था ।राजा दुट्ठगामणी बौद्धधम्म के प्रति अत्याधिक श्रद्धावान था।   लोहपासाद की निर्मिति राजा दुट्ठगामणी ने भिक्खुसङ्घ के लिए की थी।

सन्‍निपातं कारयित्वा, भिक्खुसङ्घस्स अब्रवि।

‘विमानतुल्यं पासादं, कारयिस्सामि वो अहं॥1

(भिक्खुओं को निमंत्रित करके भिक्खु संघ से कहा, मैं आपके लिए विमान के समान प्रासाद बनाऊँगा। )

लोहपासाद की निर्मिती लिये उपयुक्त साहित्य :-

इस प्रासाद के लिये उपयुक्त साहित्य का वर्णन दीपवंस में निम्नप्रकार से किया गया है-

सूधाभूमि धूलसेलं मत्तिकं इट्ठकाय च।

विसुद्धभूमिका चेव अयोजालं मरूम्बकं।।

ईससक्खरपासाणा अट्ठ अट्ठलिका सिला।

एतानि भूमिकम्मानि कारापेत्वान खत्तियो ।।2

अर्थात: लोहपासाद की निर्मिती के लिए अच्छे चूने का, मोटे पत्थरों का, अच्छी मिट्टी एवं इटों का एवं समतल भूमि एवं लौह जाल का, बिल्लोरी पत्थरों का वजरी मिट्टी का तथा आठ बड़ी-बड़ी शिलाओं का प्रयोग हुआ है।

लोहपासाद का निर्माण कालावधि   :-

लोहपासाद की निर्मिती के लिए करीब-करीब छ साल लगे।

लोहपासाद का निर्मितिमूल्य:-

लोहपासाद की निर्मिति के लिए राजा दुट्ठगामिणी ने अत्याधिक व्यय किया था। इस विहार की निर्मिती के लीये राजा ने तीस करोड मुद्राओं का व्यय किया था।

अनग्घिकं चतुमुखं  चागतो तिसं कोटियो। 3

महावंस कार इस विषय में अधिक जानकारी प्रदान करता हैं –

कम्मारम्भनकालेव, चतुद्वारम्हि भोगवा।

अट्ठसतसहस्सानि, हिरञ्‍ञानि ठपापयि॥

पुटसहस्स वत्थानि, द्वारे द्वारे ठपापयि।

गुळ तेलसक्खरमधु-पुरा चानेक चाटियो॥ 4

(काम के प्रारम्भ में ही, उस राजा ने चारों दवारों पर आठ-आठ हजार सुवर्ण मुद्रा, हजार- हजार रेशमी कपड़े, गुड़,तेल शक्कर एवं शहद से भरे हुये मटके रखवा दिए )

साथ राजा दुट्ठगामिणि राजा का उदार व्यक्तित्व भी इस प्रसंग में महावंसकार प्रकट करता है।

“अमूलककम्म मेत्थ, न कातब्ब”न्ति भासिय।

अग्घापेत्वा कतं कम्मं, तेसं मूलमदापयि॥ 5

(‘यहाँ कोई बिना मूल्य  लिए कार्य न करे’ कह कर कार्य का मूल्य का अन्दाजा लगवा कर, उसका मूल्य दे दिया)

 लोहपासाद की वास्तुशिल्प और कला  :-

सिंहली वंस ग्रंथो दीपवंस, महावंस  द्वारा लोहपासाद की वास्तुशिल्प और कला के विषय में जानकारी प्राप्त होती है, विशेषतः महावंस का 27 प्रकरण लोह प्रासाद पूजा इस विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।

यह लोहपासाद नऊ मंजिले उँचा था-

पासादं मापयी राजा उब्भेदं नवभूमिकं। 6

दीपवंस ग्रन्थ में इस प्रासाद में चार विशाल द्वार थे ऐसी जानकारी प्रदान की गयी है। महावंस में उक्त जानकारी का समर्थन करते हुए अतिरिक्त जानकारी दी गयी है ।

हत्थसतं हत्थसतं, आसि एकेक पस्सतो।

उच्‍चतो तत्तकोयेव, पासादो हि चतुम्मुखो॥ 7

(यह चार द्वारों वाला प्रासाद एक-एक ओर से सौ-सौ हाथ लम्बा था तथा ऊचाई में भी उतना ही था)

तम्ब लोहिट्ठकाहेसो,पासादो छादितो अहु।

लोह पासाद वोहारो,तेन तस्स अजायथ॥ 8

अर्थात यह प्रासाद लाल लोहे के ईटो से छाया गया था। इससे इस का नाम लोह-पासाद  हुआ।

इस नौ मंजिले प्रासाद के प्रत्येक मंजिल पर सौ-सौ कूटागार थे। सभी कूटागार चांदी से सुशोभित थे, कूटागारों  की मूंगे की वेदिकाये विविध प्रकार के रत्नो से सुशोभित थी एवं चांदी की छोटी छोटी घण्टियों से आवृत्त थी।

सहस्सं तत्थ पासादो, गब्भा आसुं सुसङ्खता।

नानारतन खचिता, सीहपञ्‍जरनेत्तवा॥ 9

(इस प्रासाद में विविध रत्नो से खचित, खिड़कियों से सुशोभित एक हजार कमरे थे )

प्रासाद की मध्य में रत्न मण्डप बनवाया गया। और यह रत्न मण्डप-

सीहब्यग्घादिरूपेहि, देवता रूपकेहि च।

अहु रतनमयोहेस, थम्भेहि च विभूसितो॥ 10

(सिंह,व्याघ्र इ. के रूपों ओर देवताओँ के रूप वाले रत्न युक्त स्तम्भों से सुशोभित था )

रत्नमय मण्डप के मध्य हाती दात का सुन्दर सिंहासन था। यह सिंहासन मौल्यवान रत्नो से सुशोभित था। इस सिंहासन में –

 दन्तमयापस्सयेत्थ, सुवण्णमय सूरियो।

सज्झुमये चन्दिमा च, तारा च मुत्तका मया॥

 नानारतन पदुमानि, तत्थ तत्थ यथारहं। 11

(स्वर्णमय सूर्य, चांदी का चंद्र, एवं  मोतियों के तारे लगे थे। उचित स्थानों पर विविध प्रकार के रत्नो के कमल लगे थे)

साथ ही जातक कथाओं का अंकन भी इस दंतमय सिंहासन में किया गया था।

जातकानि च तत्थेव, आसुं सोण्णलतन्तरे॥ 12

(सुवर्ण-वेलियों के मध्य जातक-कथाये चित्रित थी)

प्रासाद की छत भी मूल्यवान रत्नो से आभूषित थी-

रजतानञ्‍च घण्टानं, पन्ती भत्तन्तलम्बिता। 13

अर्थात छत के सिरे से लटकती हुयी रजत (चांदी) के घण्टियों की कतार थी।

प्रासाद पूर्णत: मूल्यवान रत्नो से सुशोभित था. छत, फर्श, भी मूल्यवान थे साथ ही  पलंग एवं कम्बल भी बहुत मूल्यवान थे।

आचाम कुम्भिसोवण्णा, उलुङ्को च अहु तहिं।

पासाद परिभोगेसु, सेसेसु च कथा वका॥ 14  

(प्रासाद में कड़छी एवं हाथ-पाव धोने के पात्र भी सुवर्ण के थे, तो प्रासाद में उपयोग में आनेवाले शेष पात्रों के बारे में क्या कहना ?)

इसप्रकार अत्याधिक मूल्यवान लोहपासाद की निर्मिति की गयी थी।

 लोहपासाद का दान :-

लोहपासाद की निर्मिति के उपरांत राजा दुट्ठगामणी ने संघ को आमंत्रित  किया। इस प्रसंग में  थेर

इन्द्रगुप्त, थेर धम्मसेन, थेर प्रियदर्शी, थेर बुद्धरक्षित, थेर धम्मरक्षित(1), थेर संघरक्षित, थेर मत्तिण्ण, थेर उत्तिण्ण, थेर महादेव, थेर    धम्मरक्षित(2 ), थेर चित्तगुत्त, थेर उत्तर, थेर चंद्रगुत्त एवं थेर सूर्यगुत्त  ये सभी थेर भारत से श्रीलंका आये थे ।15    लोहपासाद को राजा दुट्ठगामणी ने संघ को दान कर दिया एवं इसके पश्च्यात राजा ने एक सप्ताह  पर्यन्त संघ को महादान दिया।

राजादत्थ महादानं, सत्ताहं पुब्बकं पिय। 16

लोहपासाद  क्षतिग्रस्त और पुनर्निर्माण :-

राजा सद्धातिस्स के शासनकाल (इसा पूर्व 77-59)  में लोहपासाद क्षतिग्रस्त हुआ, लोहपासाद दिप से जल गया। परन्तु राजा सद्धातिस्स ने लोहपासाद का  पुनर्निर्माण कराया।

कारेसि लोहपासादं, पुन सो सत्तभूमकं॥ 17

(उसने पुनः सात तलका लोहपासाद निर्माण कराया)

 

लोहपासाद के विकास में सिंहली राजाओं का योगदान

लोहपासाद के विकास में सिंहली राजाओं ने भी योगदान दिया है। राजा सिरिनाग(244-263) ने लोहपासाद के विकास के लिए कार्य किया।

कारेसि पोसथागारं लोहपासादमुत्तमे।18

राजा सिरिनाग(244-263) इन्होंने लोहपासाद में उपोसथागार की निर्मिती की थी।

 

वर्तमान में लोहपासाद की स्थिति :-

राजा सध्दातिस्स के काल में लोहपासाद की बड़ी इमारत क्षतिग्रस्त हुयी थी। इसके उपरांत भी लोहपासाद की छोटी इमारत आज भी आस्तित्व में हैं। आज भी महाविहारवासी भिक्खु लोहपासाद के छोटे इमारत में उपोसथकार्य संपन्न करते है।

 

निष्कर्ष:-

राजा दुट्ठगामणी बौद्धधम्म के प्रति अत्यंत श्रद्धालु था। लोहपासाद इस भव्य प्रासाद की निर्मिति करके राजा दुट्ठगामणी ने संघ को दान किया। लोहपासाद राजा सद्धातिस्स के समय क्षतिग्रस्त हुआ फिर भी राजा सद्धातिस्स ने उसका पुनर्निर्माण कराया, लेकिन लोहपासाद अब अपनी भव्यता खो चूका था। राजा सिरिनाग ने लोहपासाद के विकास में योगदान दिया। आज भी लोहपासाद का अस्तित्व दिखायी देता है एवं संघ यहाँ उपोसथ विधि सम्पन्न करते है। प्राचीन श्रीलंका के बौद्ध वास्तुशिल्प और कला के अध्ययन के दृष्टी से  लोहपासाद अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि

  1. महावंस, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 9, https://tipitaka.org/deva/
  2. सिंह डॉ. संपा. परमानन्द.(संपा.), दीपवंस, बौद्ध आकर ग्रंथमाला, वाराणसी, प्र. सं. 1996, गाथा क्र. 2-3, पृ.क्र. 274.
  3. महावंस, 27 परिच्छेद, गाथा क्र.1, पृ.क्र.274.
  4. महावंस, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 21-22, https://tipitaka.org/deva/
  5. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 23, https://tipitaka.org/deva/
  6. सिंह डॉ. संपा. परमानन्द.(संपा.), दीपवंस, पृ.क्र.274.
  7. महावंस, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 24, https://tipitaka.org/deva/
  8. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 42, https://tipitaka.org/deva/
  9. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 28, https://tipitaka.org/deva/
  10. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 30, https://tipitaka.org/deva/
  11. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 33-34, https://tipitaka.org/deva/
  12. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 34, https://tipitaka.org/deva/
  13. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 38, https://tipitaka.org/deva/
  14. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 40, https://tipitaka.org/deva/
  15. सिंह, डॉ. संपा. परमानन्द.(संपा.), दीपवंस, गाथा क्र.4-7, पृ.क्र.274.
  16. तत्रेव, 27 परिच्छेद, गाथा क्र. 46, https://tipitaka.org/deva/
  17. तत्रेव, 33 परिच्छेद, गाथा क्र. 6, https://tipitaka.org/deva/
  18. सिंह, डॉ. संपा. परमानन्द.(संपा.), दीपवंस, गाथा क्र.36, पृ.क्र.310.

 

 

 

 

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