प्रस्तावना:-

बौध्द धर्म और पालिसाहित्य में सबसे महत्वपूर्ण और सर्वाधिक विवाद्य अगर कोई विषय है, तो वह ‘कम्मसिद्धांत’ ‘कर्मसिद्धान्त’ या ‘कर्मवाद’ है। अज्ञानवश शब्दसाम्य से कुछ हिंदू बुध्द के ‘कर्मसिद्धांत’ से तुलना करके निष्कर्ष निकालते है कि, बुध्द धम्म और वैदिक धर्म (ब्राम्हणी धर्म) एवं हिंदू धर्म एक ही है। भगवान बुध्द का ‘कर्मसिद्धांत’ और ब्राम्हणी ‘कर्मसिद्धांत‘ इन दोनों की मुल स्थापनायें एक दुसरे से परस्पर इतनी भिन्न है कि परिणाम एक हो ही नहीं सकता। हिंदू ‘कर्मसिद्धांत’ आत्मा की मान्यता पर निर्भर करता है। और बौध्द धम्म में आत्मा है ही नहीं। भगवान बुध्द के ‘कर्मसिद्धांत’ का सम्बन्ध कर्म से था और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से। ब्राम्हणी ‘कर्मसिद्धांत’ के अनुसार बालक माता-पिता से शरीर के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करता। बालक का पूर्व कर्म उसका अपना किया हुआ ‘कर्म’ है, और वह उसे अपने द्वारा ही स्वयं अपने लिये प्राप्त करता है। भगवान बुध्द पूर्वजन्मों के कर्मो के संसरण में विश्वास नहीं करते थे। भावी-जन्म (पुनर्जन्म) के संचालक के रूप में पूर्वजन्म को स्विकार करने के हिन्दु सिध्दान्त का आधार अन्यायपूर्ण है। इसका एक ही उद्येश हो सकता कि राज्य अथवा समाज को गरीबों और दरिद्रों की दुरावस्था की जिम्मेदारी से सर्वथा मुक्त कर दिया जाए। अन्यथा इस प्रकार के अत्याचारपूर्ण तथा बेहूदा सिद्धांत का कभी अविष्कार न होता।1

कर्म की परिभाषा:-

कोई मनुष्य संसार में आने के प्रथम क्षण में प्रथम श्वास से लेकर मृत्यु के अन्तिम श्वास तक, जो कुछ भी शारिरिक, वाचिक व मानसिक क्रियाएँ करता है, वे सुक्ष्म हो या स्थुल, दृश्य हो या अदृश्य। जैसे मन के विचार, वे सभी क्रियाएँ ‘कर्म’ शब्द से अभिहित की जाती है। इन कर्मो से उत्पन्न होनेवाली कुशल, अकुशल, सुखद-दुःखद प्रतिक्रियाएँ और उनके परिणाम ये सभी कर्म की परिभाषा में समाहित है।2

कर्मो का वर्गीकरण:-

तिपिटक में कर्मो की चर्चा स्थान स्थान पर अत्यांधिक सुक्ष्मता एवं विस्तार से पायी जाती है। कर्मो का वर्गीकरण कुशल-अकुशल, कुशलाकुशल एवं न कुशल न अकुशल, व्यक्तिगत तथा सामुहिक इस क्रम से किया गया है।

भगवान बुध्द ने चेतना को ही कर्म कहा है। ‘चेतनाहं भिक्खवे कम्मं वदामि’3 अर्थात ‘भिक्षुओं, मै चेतना को ही कर्म कहता हूँ।‘ चेतना के व्दारा ही काया, वाणी या मन से कर्म को करता है। ‘चेतियत्वा हि कम्मं करोति कायेन, वाचाय मनसा वा’4 इस दृष्टि से कर्म के दो ही प्रकार किये जा सकते है – चेतना तथा उसकी प्रेरणाए अथवा चित्तकर्म एवं चैतसिक (काय एवं वचन से उत्पन्न) कर्म। चेतना से प्रेरित कर्मो का कुशल तथा अकुशल भेद का पालि साहित्य में निरूपण किया गया हैै। भगवान बुध्द ने चेतना का अर्थ अनेकशः स्पष्ट किया है। चेतना का तात्पर्य है कर्मो का मुलाधार। जैसे धम्मपद की यह गाथा ‘‘मनोपुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्टा मनोमया’5 इस वाक्यांश में धर्म का अर्थ क्रिया मात्र है। उसी प्रकार चेतना का अर्थ यहां पर ‘सभी कर्मो का आधार’ है। इसिलिए ही बुध्द ने कहा कि, ‘चेतना के ही व्दारा व्यक्ति काया से, वाणी से या मन से कार्य करता है। चेतना ही कर्म का आधार है।

भगवान बुध्द ने मनुष्य के आंतरिक व्यक्तित्व का विश्लेषण चित्त को केंद्र में रखकर किया है। चित्त एवं चैतसिक धर्मो का विश्लेषण यह एक महान एवं क्रांतीकारी कार्य माना गया है।

इस संपूर्ण सृष्टि का जीवन और अस्तित्व कर्म से ही है और रहेगा। कर्म के ही माध्यम से व्यक्ति अपने भूत, भविष्य एवं वर्तमान से जूडा हुआ है। बीता हुआ आज का कल बनता है और आनेवाला कल आज बन जाता है। यह वर्तमान भूत तथा भविष्य का चक्र अनादि युगों से इसी प्रकार चला आ रहा है। वर्तमान का स्विकार किये बिना भूत और भविष्य का कोई अनुमान लगाया नहीं जा सकता।

बुध्द पूर्व दर्शन में कर्म की अवधारणाएं:-

सर्वप्रथम ‘ऋग्वेद’ की ऋचाओं में ‘कर्मसिद्धांत’ के बीज उपलब्ध होते है। परन्तु वे मुख्यतः धार्मिक कर्मकाण्डों से संबंधित थे। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार यज्ञयाग ही वह कर्म है, जिससे ईश्वर की प्राप्ती होती है। ‘उपनिषद’ एक ओर यज्ञ का समर्थन भी करते है परन्तु दुसरी ओर ‘कर्मसिद्धांत’ को भी प्रस्तुत करते है।6

उपनिषदों में प्रतिपादीत कर्म के तीन अवयव है –

  1. अच्छे कर्मो से मुक्ति मिलती है।
  2. अच्छे कर्मो से आगामी मनुष्य जीवन में सुख मिलता है।
  3. बुरा कर्म करनेवाला नरक में जाता है।7

बुध्द के समसामायिक दार्शनिक:-

बुध्द के समसामयिक दार्शनिकों के कर्म से संबंधित विचार इस प्रकार थे –

पूर्ण काश्यप के मतानुसार ‘किसी भी दुष्कर्म या अच्छे कर्म का प्रभाव नहीं होता।‘8

मक्खलि गोसाल के अनुसार ‘न कोई कुछ कर सकता है और न कोई कुछ होने से रोक सकता है। घटनाएँ घटती रहती है‘।9

अजित केसकंबलि के मतानुसार ‘कर्मो के ऐसे कोई फल नहीं होते, जिन्हे आत्मा भोग सके वा उसे भुगतने पडे’।10

पकुधकच्चायन कहते थे कि, ‘‘व्यक्ति का निर्माण सात तत्वों से हुआ है, एवं कोई किसी का सिर काट दे तो यह कोई मारना नहीं हुआ। यह केवल इतना ही हुआ कि, शस्त्र सात तत्वों में प्रवेश कर गया’11

संजय वेलट्टिपुत्त भी ‘‘अच्छे-बुरे कर्म के फल के विषय में संदेह करते थे।12

बुध्द के समकालीन विचारकों में तीर्थंकर भगवान महावीर प्रमुख थे। उनके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि, ‘व्यक्ति जो कुछ भी दुःख या सुख अनुभव करता है वह सब उसके पूर्व जन्मों के कर्मो का परिणाम होता है।13

इस प्रकार बुध्द के पूर्व तथा बुध्द के समकालीन विचारकों के कर्मो के बारे में विचार थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि बुध्द को यह विचार निराशावादी, असहाय और परिणामों की चिंता न करनेवाले विचार लगे। इसलिए बुध्द ने इन्हे अस्विकार किया।

प्रस्तुत प्रसंग में तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा कहा जा सकता कि, कर्म को विशुध्द आचारतत्व के आसन पर बैठाने का, उसे स्वतंत्र सत्ता प्रदान करने का तथा उसके महत्व को किसी भी प्रकार के महत्व ग्रंथ प्रमाण से वियुक्त करके नैतिक आदर्शवाद की स्वतः परिपूर्णता सिध्द करने का श्रेय शाक्यमुनि तथागत भगवान बुध्द को ही जाता है।

वैदिक धर्म में ईश्वर के बल और डर पर मनुष्य को स्वर्गनरक का आमिष, प्रलोभन या डर दिखाकर धार्मिक जीवन में प्रवृत्त करते है। बौध्द धर्म में ईश्वर के लिये कोई जगह नहीं फिर आदमी को ‘कम्मदायाद और कम्मसरण’ बनने के अलावा चारा ही नहीं रहा। तथागत ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ‘तुम्हें तुम्हारे कर्म करने होंगे, मैं केवल मार्गदाता हू’। ‘तुम्हेहि किच्चं आत्तपं अक्खातारो तथागता’। ‘भिक्षुओ! कम्मदायाद बनो आमिषदायाद नहीं।‘ इस घोषणा व्दारा दैवी चमत्कार पर आधारित भाग्यवाद की भी तथागत ने कबर खोद डाली। फिर कुशल अकुशल कर्मो के विवेचन और विश्लेषण से उन्होने आदमी को स्वपराक्रम पर निर्भर रहने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार बुध्द ने कर्मकाण्ड, यज्ञहवन, याचना-प्रार्थना को त्याग कर वीर्यशील, उद्योगशील और क्रियाशील बनने का उपदेश दिया। फिर भी भारतीय दर्शन में आजतक इन अव्याकृत बातों का सदा ही बोलबाला रहा। वे लोगों के दिलोदिमाग पर छाये रहे और उन्हे गुमराह करते रहे।

निष्कर्ष:-

इस शोधनिबंध के विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि, बुध्दपूर्व समय के वैदिक धर्म, उपनिषदों में तथा बुध्दकालीन विचारकों के मतानुसार ईश्वर, आत्मा ही सभी प्रकार के कर्मो के लिए उत्तरदायी है। लेकिन तथागत बुध्द ने आत्मा परमात्मा, ईश्वर और भूत पिशाच्च का अस्तित्व अमान्य करके परिपूर्ण मानवतावादी और विज्ञानवादी धम्म को प्रतिपादीत किया और आदमी की स्वर्ग-नरक की तरफ लगी हुयी नजर को उतारकर वास्तविकता की जमीनपर स्थिर कराया।

संदर्भ:-

  1. बुध्द और उनका धम्म, डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर, पृष्ठ क्र. 158 ते 161
  2. पालि वाङमय में कर्मसिध्दान्त, डाॅ. एन. जे. वाघमारे, पृष्ठ क्र. 75
  3. अंगुत्तर निकाय, तृतिय भाग, पृष्ठ क्रं. 120, अट्टसालिनी, पृष्ठ क्र. 73
  4. —- ’’ ——
  5. धम्मपद, पठमोवग्गो
  6. पालि वाङमय में कर्मसिध्दान्त, डाॅ. एन. जे. वाघमारे, पृष्ठ क्र. 76
  7. —- ’’ —-
  8. दीघनिकाय, प्रथम, प्रथम सुत्त
  9. —- ’’ —-
  10. —- ’’ —-
  11. —- ’’ —-
  12. —- ’’ —-
  13. —- ’’ —-

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