पालि भाषा और साहित्य का महत्व :
पालि भाषा का महत्व अनन्यसाधारण है, उसी प्रकार पालि साहित्य विश्व के विशाल साहित्य में सम्मिलित है। पालि साहित्य को तिपिटक साहित्य, अठकथा साहित्य, व्याकरण साहित्य, कोश साहित्य, टीका साहित्य, अनुटिका साहित्य आदि में विभाजित किया गया है। इसी प्रकार वंश साहित्य भी पालि साहित्य का एक अंग है। पालि साहित्य का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी है। पालि साहित्य भारत के प्राचीन साहित्य के अंतर्गत समाविष्ठ होता है। अतः पालि साहित्य का महत्व निश्चय ही अनन्यसाधारण है।
पालि साहित्य का प्रारंभिक स्रोत :
पालि साहित्य की उत्पत्ति भगवान बुद्ध द्वारा हुई है। भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण तक निरंतर पैंतालीस वर्ष तक धम्मोपदेस दिया । भगवान बुद्ध के उपदेश अर्थात बुद्धवचन का क्रमिक विकास हुआ। साथ ही ये बुद्धवचन तिपिटक के रूप में साहित्यिक स्वरूप में आज भी उपलब्ध हैं। तिपिटक को आज भी बुद्धवचन कहा जाता है और इस बुद्धवचन के मूल स्रोत स्वयं भगवान बुद्ध हैं।
तिपिटक की रचना भगवान बुद्ध द्वारा बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्च्यात विभिन्न अवसरों पर विभिन्न लोगों को दिए गए उपदेशों के द्वारा हुई है। भगवान बुद्ध के पहले भी पाली भाषा का अस्तित्व रहा होगा। लेकिन इस भाषा में साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया भगवान बुद्ध द्वारा प्रारंभित हुयी। बुद्धवाणी, बुद्धवचन का संकलन किया गया है और इस प्रकार तिपिटक की रचना हुई है। इसीलिए बुद्धवाणी, बुद्धवचन के प्रवर्तक भगवान बुद्ध हैं। भगवान बुद्ध तिपिटक के प्रमुख स्रोत हैं।
पालि साहित्य का प्रारंभिक स्वरूप :
बुद्धवाणी का विकसित रूप तिपिटक है। लेकिन प्रारम्भिक अवस्था में तिपिटक का स्वरूप वैसा नहीं था जैसा आज उपलब्ध है। सर्वप्रथम समग्र बुद्धवचन या बुद्धवाणी को नवांग बुद्धशासन में विभाजित किया गया।
सुत्त गेय्यं वेय्याकरणं गाथुदानिकवुत्तकं,
जातकब्भुतवेदल्लं नवङ्र सत्थुसासनं।।1
इस नवांग बुद्धशासन अर्थात शास्ता के शासन में सुत्त, गेय्य, व्याकरण, गाथा, उदान, इतिवुत्तक, जातक, अद्भुत धम्म, वेदल्ल का अंर्तभाव होता है।
नवांग बुद्धशासन का विश्लेषण
गंधवंस में नवांग बुद्धशासन में तिपिटक का विभाजन करके विश्लेषित किया गया है। यह निम्नप्रकार से है –
1.सुत्त –
सुत्त का अर्थ है’ बुद्धोपदेस’ ।
तत्थ उभतोविभड्.निद्देसे, खन्धक – परिवारा, सुत्तनिपाते मड्.लसुत्तं, रतनसुत्तं नालकसुत्तं तुवटकसुत्तानि अञ्ञं
पि सुत्तनामकं तथागतवचन सुत्तं ति वेदितब्बं।2
2.गेय्य-
गेय्य अर्थात जिसे गाया जा सकता है, ऐसा भाग है।
सब्बं पि सगाथकं गेय्य ति वेदितब्बं ति।3
3.वेय्याकरण-
वेय्याकरण का अर्थ व्याख्या करना।
सकलं अभिधम्मपिटकं, निगाथकं सुत्तं च, यं च अञ्ञं पि अट्ठहि अङ्रेहि असंगहितं बुद्धवचनं तं बुद्धवचनं वेय्याकरणं वेदितब्बं।4
4.गाथा-
दो पंक्तियों के छंद को गाथा कहा जाता है।
धम्मपद, थेरगाथा, थेरीगाथा, सुत्तनिपाते नोसुत्तनामिका सुध्दिकगाथा च गाथा ति वेदितब्बा।5
5.उदान-
उदान यह शब्द उल्हासपुर्ण कथन सुचित करता है।
सोमनस्स ञाणमयिक गाथापटिसंयुत्ता द्वे असीतिसुत्तन्ता उदानं ति वेदितब्बं ति।6
6.इतिवुत्तक-
इतिवुत्तक भगवान बुद्ध द्वारा ‘यह कहा गया है’ इस अर्थ स्पष्ट को करता हैं।
’वुत्तं हि एवं भगवता’ ति आदिनयपवत्तो द्वादसुत्तरसतसुत्तन्ता इतिवुत्तकं ति वेदितब्बा।7
7.जातक –
जन्म से संबंधित कथाओं को जातक कहा जाता है।
अपण्णकजातकादीनि पण्णासाधिकानि प´चजातकसतानि जातकं ति वेदितब्बा।8
8.अब्भुतधम्म-
अब्भुतधम्म का अर्थ आश्चर्यकारक-प्रकरण है।
चत्तारो मे, भिक्खवे, अच्छारिया-अब्भुतधम्मपटिसंयुत्ता सुत्तनता अब्भुतधम्मं ति वेदितब्बं।9
9.वेदल्ल–
वेद का अर्थ धार्मिक भावना, अनुभूति है । ’वेद’ को ’ल’ प्रत्यय लगकर ’वेदल्ल यह शब्द होता है।
चुल्लवेदल्ल-महावेदल्ल-सम्मादिट्ठि-सक्कप´ह-संखारभाजनीय-महापुण्णमसुत्तन्तादयो सब्बे पि वेदं च तुट्ठिं च लध्दा लध्दा पुच्छितसुत्तन्ता वेदल्लं ति वेदितब्ब।10
पालि भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आधुनिक भाषाओं पर भी पालि भाषा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।वर्तमान लेख में पालि साहित्य के प्रारम्भिक स्रोतों एवं स्वरूप की चर्चा की गई है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- सिंह डाॅ.परमानन्द संपा, दीपवंस, बौद्ध आकर ग्रंथमाला, वाराणसी 1996, गाथा क्र.20, पृ.क्र.58.
- कुमार, डाॅ.बिमलेंद्र संपा, गंधवसो, इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, प्र.1992, पृ.क्र.3-4.
- वही पृ.क्र.4
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