प्रस्तावना :-
दीपवंस वंस साहित्य का सर्वप्रथम ग्रंथ है। दीपवंस इस ग्रंथ द्वारा प्राचीन भारत और प्राचीन श्रीलंका के सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक इतिहास के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। साथ ही प्राचीन भारत और श्रीलंका के बौद्ध कला के विषय में भी महत्वपूर्ण जानकारी इस ग्रंथ के अध्ययन द्वारा प्राप्त होती है । दीपवंस में प्राचीन श्रीलंका के महाविहार के निर्मिति एवं विकास की दृष्टी से महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गयी है।
श्रीलंका में विहार निर्मिती का प्रारंभ:-
इसा पुर्व तिसरी शताब्दी में तृतिय संगीति के पश्चात थेर महिन्द द्वारा श्रीलंका में बौद्धधम्म का आगमन हुआ। थेर महिन्द एवं थेरी संघमित्रा के महत्प्रयासों द्वारा शीघ्र ही श्रीलंका बौद्धमय हो गया। बौद्ध स्थापत्य कला का उगम एवं विकास भी इसी काल मे हुआ। इसी काल में श्रीलंका में विहारों की निर्मीती का प्रारंभ भी हुआ ।
महाविहार की निर्मिती: –
महाविहार की निर्मिती राजा देवानंपिय तिस्स ने थेर महिन्द एवं भिक्खुसंघ के लिए की थी। इस संबंध में विस्तार से चर्चा दीपवंस ग्रंथ के तेरहवे एवं चौदहवे परिच्छेद ‘महाविहारपटिग्गहणं’ में की गयी है। यह श्रीलंका का सर्वप्रथम विहार था। इस विहार में मालक की निर्मिति के निर्देश थेर महिंद ने दिए थे। मालक अर्थात चार दीवारों से घिरा स्थान, जहाँ भिक्खुओ के धार्मिक कृत्य सम्पन्न होते है ।
इस सम्बन्ध में दीपवंस में निम्न जानकारी प्रदान की है .
संघकम्म करिस्सन्ति अकुप्पं सासनारहं।
इधोकासे महाराज मालकं तं भविस्सति।। 1
(महाराज ! इस यहाँ भी शासनयोग्य सङ्घ का स्थिर कार्य सम्पन्न होगा। इस स्थान पर मालक बनेगा)
साथ ही जन्ताघरपोक्खरणी अर्थात उष्ण जल की पुष्करिणी का निर्माण भी इस विहार में करने की सुचना थेर महिन्द ने दी थी। तथा उष्ण जल की पुष्करिणी का महत्त्व भी थेर महिंद ने स्पष्ट किया।
जन्ताघरपोक्खरणी इधोकासे भविस्सति।
भिक्खू जन्ताघरं एत्थ परिपूरेस्सन्ति सब्बदा।।2
(यहाँ भिक्खुओं के लिए उष्ण जल की पुष्करिणी बनेगी।भिक्खु यहाँ आकर अपना उष्ण जल से पूर्ण होने योग्य कार्य सम्पन्न करेंगे।)
तथा बोधिवृक्ष की-स्थापना भी यही हुयी थी।3 उपोसथगृह अर्थात उपोसथभवन का निर्माण भी इस विहार में करने की सुचना थेर महिन्द ने दी थी। साथ ही उपोसथगृह का अर्थ और महत्त्व भी थेर महिंद ने इस प्रसंग में स्पष्ट किया।
“अन्वद्धमासं पातिमोक्खं उद्दिसिस्सन्ति ते तदा।
उपोसथधरं नाम इधोकासे भविस्सति “।। 4
(यहाँ भिक्खु प्रत्येक पक्ष में जो उपोसथ करते है, पतिमोक्ख का पठन करते है , उसका यहाँ स्थान बनेगा, तथा ‘उपोसथगृह’ कहलायेगा।)
इसके अलावा सांघिक लाभ के लिये भिक्खुओं का स्थान5, सदा भिक्खुओ के भोजनदान के लिये भोजनशाला6 तयार करने के निर्देश थेर महिंद ने दिये थे। उसी प्रकार इस विहार का सीमा-बन्धनकृत्य भी संपन्न करने के निर्देश भी थेर महिन्द ने दीये थे। तथा थेर महिंद ने सीमाबन्धन का महत्व भी स्पष्ट किया।
एवं बद्धानि सीमानि एकावासो ति वुच्चति।
विहारं थावरं होती आरामो सुपतिट्ठितो ।। 7
(इस तरह बाँधी हुयी सीमाएँ ‘एकावास’ कहलाती है । इसी सीमा के बंधने पर कोई भी विहार स्थायी होता और वहाँ का आवास सुप्रतिष्ठित होता है ।)
विहार की संरचना किस तरह होती थी, इस विषय मे महत्वपुर्ण जानकारी दिपवंस ग्रंथ के 13 वे एवं 14 वे परिच्छेद के अध्ययन द्वारा महाविहार के निर्माण कार्य से स्पष्ट होती है।
महाविहार प्रसिद्ध बौद्ध अध्ययन केंद्र :-
यह ‘महाविहार’ आगे श्रीलंका का प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र हुआ। महाविहार के भिक्खुओं को महाविहारवासी कहा जाता था। दीपवंस की रचना भी महाविहारवासी भिक्खु अथवा भिक्खुणी संघ द्वारा हुयी है एैसा विद्वानो का मत है।
चुलवंस ग्रंथ के अनुसार आ. ‘बुद्धघोष’ इन्होंने ‘महाविहार‘ में अपना अध्ययन कार्य पूर्ण किया था।
महाविहार के विषय मे उल्लेख है की-
In the 5th century the Mahavihara was possibly the most sophisticated university in southern or Eastern Asia. Many international scholars visited and learned many disciplines under highly structed instruction.8
महाविहार के विकास में सिंहली राजाओं का योगदान :
महाविहार के विकास में श्रीलंका के राजाओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।राजा मेघवण्णाभय ने महाविहार में सिलामण्डप का निर्माण किया।
अभयो नाम नामेन मेघवण्णो ति विस्सुत्तो।
सीलामण्डपं कारेसि महाविहारमुत्तमे ।।9
उसी प्रकार राजा ने महाविहार के पश्चिम भाग में पधानभूमिका निर्माण भी किया।
पधानभूमिं कारेसि महाविहार पच्छतो।10
राजा सङ्घबोधि ने महाविहार में शलाकाग्र विधी से भोजनदान की व्यवस्था की।
रम्मे मेघवनुय्याने धुवयागुं अरिन्दमो।
पट्ठपेसि सलाकग्गं महाविहारमुत्तमे ।।11
निश्चितही महाविहार के संवर्द्धन की दृष्टी से सिंहली राजाओं ने महत्वपूर्ण कार्य किया है।
निष्कर्ष :-
दीपवंस ग्रंथ महाविहार के इतिहास के अध्ययन के दृष्टी से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। महाविहार की निर्मिति एवं विकास में सिंहली राजाओं के योगदान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दीपवंस ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा प्राप्त होती है। प्राचिन श्रीलंका के विहारो के अध्ययन की दृष्टी से, विशेषतः महाविहार के अध्ययन की दृष्टी से, दीपवंस ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- सिंह डॉ.परमानन्द, दीपवंस, बौद्ध आकर ग्रंथमाला, वाराणसी, प्र. सं. 1996,गाथा क्र. 42-43, पृ.क्र.178.
- तत्रेव, गाथा क्र. 46 पृ.क्र.178.
- तत्रेव, गाथा क्र. 51 पृ.क्र.180.
- तत्रेव, गाथा क्र. 56-57 पृ.क्र.180.
- तत्रेव, गाथा क्र. 61. पृ.क्र.180.
- तत्रेव, गाथा क्र. 66, पृ.क्र.182.
- तत्रेव, गाथा क्र. 23-24, पृ.क्र.188.
- Anuradhapura Mahaviharaya-http://en.m.wikipedia.Org
- तत्रेव, गाथा क्र. 54, पृ.क्र. 314.
- तत्रेव, गाथा क्र. 55, पृ.क्र.314.
- तत्रेव, गाथा क्र. 53, पृ.क्र.314.